खेतों में काम कर बीता बचपन, गांव में नहीं थी बिजली; अब 48 साल बाद टीम इंडिया को चैंपियन बनाने की जिम्मेदारी

पुरुषों का हॉकी विश्व कप 13 जनवरी से शुरू हो रहा है। इस बार मेंस हॉकी विश्व कप भारत में खेला जा रहा है। हॉकी विश्व कप 2023 का आयोजन 13 से 29 जनवरी के बीच उड़ीसा के दो शहरों भुवनेश्वर और राउलकेला में किया जाएगा। इस विश्व कप में मेजबान टीम इंडिया से विश्व कप जीतने की उम्मीद की जा रही है। भारतीय खिलाड़ी भी इस सपने को पूरा करने के लिए अपनी ओर पूरी जी-जान लगा रहे हैं। इन खिलाड़ियों में एक नाम निलाम खेस का भी है।  टीम इंडिया के डिफेंडर निलाम खेस इस विश्व कप में अपना डेब्यू कर रहे हैं। उनके कंधों पर 48 स

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By puneet sharma
खेतों में काम कर बीता बचपन, गांव में नहीं थी बिजली; अब 48 साल बाद टीम इंडिया को चैंपियन बनाने की जिम्मेदारी
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पुरुषों का हॉकी विश्व कप 13 जनवरी से शुरू हो रहा है। इस बार मेंस हॉकी विश्व कप भारत में खेला जा रहा है। हॉकी विश्व कप 2023 का आयोजन 13 से 29 जनवरी के बीच उड़ीसा के दो शहरों भुवनेश्वर और राउलकेला में किया जाएगा। इस विश्व कप में मेजबान टीम इंडिया से विश्व कप जीतने की उम्मीद की जा रही है। भारतीय खिलाड़ी भी इस सपने को पूरा करने के लिए अपनी ओर पूरी जी-जान लगा रहे हैं। इन खिलाड़ियों में एक नाम निलाम खेस का भी है। 

टीम इंडिया के डिफेंडर निलाम खेस इस विश्व कप में अपना डेब्यू कर रहे हैं। उनके कंधों पर 48 साल से टीम इंडिया के विश्व कप के सूखे को खत्म करने की जिम्मेदारी है। वो अपनी ओर से सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन देने का वादा कर चुके हैं। निलाम खेस के लिए विश्व कप खेलना किसी सपने के सच होने जैसा है। यहां तक का उनका सफर आसान नहीं रहा, इसके लिए उन्हें कड़ी मेहनत करनी पड़ी है। 

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बहुत ही संघर्षपूर्ण है निलाम खेस की कहानी   

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टीम इंडिया के नए डिफेंडर निलाम खेस की कहानी संघर्षों से भरी हुई है। राउलकेला के कादोबहाल गांव में जन्में खेस का बचपन बहुत ही गरीबी में बीता है, बचपन में वो खेतों में काम किया करते  थे। उनके गांव में 5 साल पहले तक बिजली नहीं थी। घर की स्थिति ऐसी थी कि उनके पिता के पास लालटेन तक खरीदने के पैसे नहीं थे। शाम के वक्त दिए और कुप्पी जलाकर घर में रोशनी की जाती थी। ऐसी स्थिति में अन्य सुविधाओं की अपेक्षा करना ही बेकार है। उनके गांव की स्थिति ऐसी थी कि हॉकी खिलाड़ियों के जानने की तो बात छोड़िए अधिकांश लोग पास के शहर राउलकेला के विषय में भी नहीं जानते थे।  

आदिवासी समुदाय से आने वाले निलाम ने हॉकी खेलना सिर्फ टाइम पास के लिए ही शुरू किया था। खेस बिना घास के मैदान पर फटे नेट वाले गोलपोस्ट में हॉकी खेला करते थे। उन्हें खेलते वक्त ये भी ध्यान देना होता था कि गेंद इधर-उधर न जाए, क्योंकि वो मैदान रोड से सटा हुआ था। डिफेंडर उन्हें इसलिए बनना पड़ा क्योंकि बाकी लड़के स्ट्राइकर्स और गोल कीपर बनना चाहते थे। सिर्फ टाइम पास के लिए हॉकी खेलने के कारण उन्होंने डिफेंडर का रोल बिना किसी प्रतिरोध के स्वीकार कर लिया, और फिर इस रोल में खुद को पूरी तरह ढाल लिया।

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हॉकी को निलाम खेस ने अपना करियर इसलिए बनाया, क्योंकि वो अपने गरीबी में जी रहे परिवार के लिए पैसे कमाना चाहते थे। अपने किसान पिता की बैसाखी बनना चाहते थे। हॉकी को गंभीरता से लेने के बाद जब उन्होंने नियमित प्रेक्टिस शुरू की, तो उनकी मुलाकात वीरेंद्र लाकड़ा से हुई, जो अपने समय में खुद स्टार हॉकी खिलाड़ी थे। लाकड़ा ने उनकी काफी सहायता की, उन्हें कई अच्छी टिप्स देकर उनके खेल को निखारा। साथ ही इस स्तर तक पहुंचने और सपने को साकार करने में उनकी मदद की। 

लियाम खेस ने सुनाई अपनी कहानी 

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अपने खेल पर बात करते हुए लियाम खेस ने कहा कि "कभी-कभी, मुझे अपनी कहानी बताने में शर्मिंदगी होती है, लेकिन फिर मैं पीछे मुड़कर देखता हूं और सोचता हूं, वाह, मैंने इसे इतना आगे बढ़ाया है।" इसके बाद उन्होंने कहा कि “मैं स्कूल में ब्रेक के दौरान अपने भाई के साथ खेलता था। घर आने के बाद, मैं अपने माता-पिता को खेत में मदद करता, और शाम को गांव के लोग हॉकी के खेल के लिए मिलते, तो मैं भी उनके साथ खेलता था।”

युवा खेस ने इसके बाद "माइकल किंडो, दिलीप टिर्की, लाजरस बार्ला और प्रबोध टिर्की जैसे खिलाड़ियों के नक्शेकदम पर चलते हुए हर कोई फॉरवर्ड के तौर पर खेलना और गोल करना चाहता था, तब मैंने भारत के लिए खेलने की कल्पना भी नहीं की थी।" इसके बाद पूर्व भारतीय खिलाड़ी वीरेंद्र लाकड़ा पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि “वह मुझे अपने भाई जैसा मानते हैं,और मुझे बहुत सी चीजें सिखाईं। उन्होंने टैक्लिंग, पोजिशनिंग, दबाव झेलने के बारे में सिखाया।”

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